आज़ाद भारत के 75 वर्ष | भाग 1| कश्मीर विवाद | अंतरराष्ट्रीय  दृष्टिकोण

आज़ाद भारत के 75 वर्ष
*भाग 1*
*अंतरराष्ट्रीय  दृष्टिकोण*
  (कश्मीर विवाद)


आज़ादी के बाद से लेकर आज तक भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते कायम करने की हमेशा कोशिश करता है। पर हर बार ऐसी द्वीपक्षीय वार्ताऐं सफल नहीं हुई हैं।

इन्हीं मुद्दे में से सबसे प्रमुख है 1947 भारत पाक युद्ध जिसकी भूमिका बनती है।

1945 लार्ड माउण्टबेटन के भारत आने से लेकर जिनको ब्रिटिश हुकुमत ने भारत को आज़ादी सुपूर्द करने के इरादे से भेजा था।

वह इरादा जो आज़ाद भारत का सबसे विवादित मुद्दा बन गया जिसकी उस वक्त किसी को खबर तक न हुई। हम बात कर रहे हैं कश्मीर के मुद्दे की जिसपर 1947 में भारत का पहला युद्ध हुआ। कश्मीर जिसको भारत का स्वर्ग कहा जाता है। जहाँ के शासक थे महाराजा हरि सिंह, हैदराबाद और मैसूर के बाद तीसरी सबसे बड़ी रियासत। एक ऐसा रियासत जहाँ की अधिकांश आबादी मुस्लिम थी पर शासक एक हिन्दू था।

आज़ाद भारत की 562 रियासतों के विलय के लिए विलय-पत्र (Instrument of Accession) तैयार हुए जो विभिन्न रियासतों द्वारा भारत के वायसराय (viceroy) को देने थे।  रियासत मामलों के तत्कालीन मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल थे और उनही की सलाह पर वायसराय 18 से 25 जून 1947 के बीच कश्मीर के राजा हरि सिंह से मिले और उन्हें भारत सरकार का प्रस्ताव पेश किया।

भारत विभाजन एक्ट, 1947 के तहत जब पाकिस्तान बना तो हरि सिंह के सामने दो दरवाज़े खुले जिनमे पहला हिन्दू शासक के तौर पर भारत में मिलना और दूसरा एक मुस्लिम बाहुल्य इलाका होने के कारण पाकिस्तान में मिल जाना। लेकिन लॉर्ड माऊंटबेटन को दिए जबाब में महाराज ने कहा था कि मेरी रियासत के सभी मुस्लिम शेख अब्दुल्ला के साथ है और वह पंडित नेहरू के करीबी है और वे किसी भी कीमत पर पाकिस्तान में नही मिल सकते पर साथ ही वे भारत में भी शामिल नही हो सकते क्योंकि उनकी प्रजा इसे स्वीकार नहीं करती। हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह के अनुसार अगर महाराजा हरि सिंह उस दिन फैसला ले लेते तो आज कश्मीर एक विवाद का विषय नहीं होता।

एक तरफ जिन्ना कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते थे और दूसरी तरफ शेख अब्दुल्ला थे जिनके अनुसार विलय का फैसला जनता करती। इनके अलावा कांग्रेस के अनुसार विलय का फैसला राज्य की जनता लेती तो जिन्ना के अनुसार यह फैसला शासन लेता और इन्ही वजहों से 15 अगस्त 1947 तक भी कश्मीर के तसव्वुर का कोई फैसल नही हो सका। भारत में कश्मीर विलय का मुद्दा अब त्रिकोणीय आकार ले चुका था जिसमें तीन विभिन्न कोनों पर महाराज हरी सिंह, शेख अब्दुल्ला और पंडित नेहरू थे।

महाराज हरि सिंह का उद्देश्य कश्मीर को एक आज़ाद राज्य बनाने का था। पर कुछ वक्त के बाद सरदार पटेल के करीबी जस्टिस मेहर चंद्र महाजन को कश्मीर का प्रधानमंत्री (P.M) बनाया। इस निर्णय से पाकिस्तान और उसके सियासतदानों को बहुत बुरा लगा क्योंकि उन्हें एहसास हो गया था कि कश्मीर अब भारत का ही हिस्सा बनेगा। शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का लोकतांत्रिक चेहरा बनाने के पीछे उद्देश्य था भारत की एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना का आधार मजबूत करना जो जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्र की परकल्पना को एक जोरदार तमाचा था। यही बात पाक को बुरी लगी और उनके तरफ से कहा गया की अगर भारत सरकार कश्मीर विलय पर जल्द निर्णय नही लेगी तो कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाएगा। इन्ही घटनाओं के बीच में वीपी मेनन कश्मीर से विलय पत्र ले दिल्ली रवाना हुए और दिल्ली आकर उसे वाइसराय को हैंडओवर किया। इसी बीच तैयारियां शुरू हो चुकी थी आज़ाद भारत के पहले युद्ध की।

लाहौर में जिन्ना से मुलाक़ात में उन्होनें ने यह साफ कर दिया कि भारत के कश्मीर से हटते ही वे युद्ध रोक देंगे। फिर 2 नवंबर 1947 को पंडित नेहरू ने ऑल इंडिया रेडियो से घोषणा की और कहा, "भारत में कश्मीर का विलय वहाँ की जनता के मतों से होगा जो यूनाइटेड नेशंस की निगरानी में किया जाएगा।" अन्ततः, यही निर्णय भारत के राजनीति का सबसे प्रभावी निर्णय हुआ और दो राष्ट्रों के बीच का मामला पूरी दुनिया का मसला बन गया। एक तरफ पाकिस्तान के हमलावरों ने कश्मीर एयरपोर्ट पर कब्जा किया लेकिन सेना ने इनको दूर किया ।इन्ही मुद्दों के बीच यूनाइटेड नेशन ने युद्ध विराम लगा दिया और जो जहाँ थी वही रुक गए और इन्ही के बीच लाइन बनी Line of control LOC.

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