महिला दिवस विशेष

शीर्षक: औरत
कल आईने में
मिली मैं एक औरत से,
हाँ वही...
खुशी देने को जो बट जाती है अनेक स्वरूपों में
बॉंध देते हो तुम जिसके अस्तित्व को कई बँधनों में
जो 'तुम कौन हो?' का उत्तर किसी उदाहरण से देती है ;
जो खुद की पहचान के लिए किसी देवी को टटोलती है ।
जो ईटों के मकाँ को सजा संवार के घर बना देती है
उर्वरता से बीज को इंसान बना देती है।
अपने जिस्म को निचोङ कर
पुरुष को भी जीवन देती है।

बस एक औरत ही है
जो पति की कभी दोस्त,कभी प्रेमिका बन
तो बन के कभी माँ
सारे फर्ज निभा जाती है।
तप तप कर संघर्ष में खुद को खरा सोना बना देती है।

औरत तो बस औरत है
जो अपनी जिद पर आकर मौत को भी झुठला देती।
वो धैर्य और विश्वास की मूरत है
पल पल अपनी खूशियों का त्याग हस कर देती है।
हो जाए मजबूर चाहे तन से वो जितना भी
पर अंतर्मन को कभी मजबूर नही होने देती है।
दे सकती है जवाब खुद की  तौहीन का
पर वो दो घरों की इज्जत की वो लुटने नहीं देती
जीत ली चाहे सारी दुनिया भी
पर घर को सौतेला नहीं होने देती

औरत ,न लक्ष्मी है ,न दुर्गा है ,न चंडी है
बस वो बन ये तो अपना अस्तित्व नहीं मिटने देती
ये तो इक खास शै है औरत रब की 
खास शै है ये औरत रब की
हाँ सच में हो गई  मुलाकात  औरत से
आईने के सामने....
  प्रभजोत कौर जोत 

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