"शिक्षा, शिक्षक और शासन"

"शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पियेगा वह दहाड़ेगा" इस कथन को चरितार्थ करने में एक छात्र का मार्गदर्शन करने की क्षमता केवल एक गुरु में होती है। भारतीय समाज में गुरु का बखान हर शास्त्र, हर पुराण में हुआ है। 

श्रीरामचरित मानस में वर्णित कथन:

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।।

व्याख्या: “गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहें वह ब्रह्मा हों शंकर हों या की उन के समान कोई और!"

भारत के इतिहास में हमें गुरुओं के बहुत से किरदार मिलते हैं, अब वो चाणक्य हो या के गुरु द्रोणाचार्य हो इनकी महानता और इनका ज्ञान दोनों ही जग-जाहिर हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में वर्णित प्रसिद्ध विश्वविद्यालय तक्षशीला और नालन्दा रहे हैं जिनमे दुनिया के हर कोने से छात्र आते थे और इसकी मुख्य वजह वहां के शिक्षक ही रहे। प्राचीन भारतीय समाज कुछ ऐसा रहा कि जब बुद्ध जैसे संत, गुरू-राज्यसभा में प्रवेश करते थे तो उनके सम्मान में अजातशत्रु जैसा शासक खड़ा हो जाया करते थे। 

आधुनिक भारत में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस ५ सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाता है। डॉक्टर राधाकृष्णन राज्यसभा के प्रथम अध्यक्ष थे। राजनीति जैसे विशाल और जिम्मेदारी भरे काम में होने के बावजूद भी उनकी इच्छा सदैव एक शिक्षक की तरह पहचाने जाने की थी। 

लोकतंत्र हों या राजतंत्र एक राष्ट्र की विकास यात्रा में वहां की शिक्षा व्यवस्था का बहुत बड़ा योगदान रहता है और अगर वैश्विक स्तर पर बात करें तो शिक्षा और शिक्षक के बीच शासन या सरकार एक बहुत ही प्रभावी ढंग से माध्यम का काम करती है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन शासन का सबसे बड़ा योगदान रहा है। शासन द्वारा हर वर्ग तक शिक्षा को सुचारू रूप से पहुंचाना एक बड़ी जिम्मेदारी रही है और रहेगी। इस जिम्मेदारी में शासन का सहयोग व एक माध्यम का काम एक शिक्षक का होता है. 

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